भक्त: ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन - Satyam Dwivedi
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भक्त: ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन

भक्त: ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन

सारांश
मानव भाषा रचनात्मकता का एक जीता-जागता प्रतिबिम्ब है। भाषा में उपलब्ध भाषाई उपकरणों का प्रयोग रचनात्मकता को प्रदर्शित करने तथा मितव्ययिता एवं सुसंगति के सिद्धांत (Principle of economy and consistency) के अनुसार अपने संदेश को कम से कम प्रयत्न से प्रेषित करने के लिए किया जाता है। कालांतर में यही भाषिक परिवर्तन का कारण भी बनते हैं।

भाषिक परिवर्तन भाषा विकास की प्रक्रिया का एक सामान्य हिस्सा है, परंतु दुविधा की स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है जब सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु प्रेयोक्ति जैसे भाषाई उपकरणों का प्रयोग सदियों से चले आ रही जनमानस से जुड़ी अवधारणाओं को ताक पर रख कर किया जाता है, जिनसे दिग्भ्रमित करने वाले भाषिक परिवर्तन होते हैं।

भक्त शब्द के हालिया अर्थादेश को मूल में रखते हुए ये शोधपत्र तुलनात्मक अध्ययन के लिए उसका एक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करता है, तथा प्रेयोक्तियों के प्रयोग से जुड़ी नैतिक ज़िम्मेदारी जैसे समसामयिक बिंदुओं पर प्रकाश डालता है।


सिंहावलोकन
भाषा स्वाभाविक रूप से गतिशील होती है। इस गति का निर्धारण विभिन्न कारकों द्वारा होता है, जिसमें इसके मूल भाषा-भाषी सबसे बड़े कारक के रूप में उभर कर सामने आते हैं। मूल भाषा-भाषियों की भाषा के प्रति प्रवृत्ति ही निर्धारित करती है कि किसी भाषा की दिशा एवं दशा क्या होगी।

जिस प्रकार विकास के क्रम में प्राणिमात्र के स्वरूप में परिवर्तन होता है उसी प्रकार किसी भी मानव भाषा में भी विविध परिवर्तन समय-समय पर होते रहते हैं। यही कारण है कि भाषा किन्हीं बंधनों में बंध कर नहीं रहती है। ऐतिहासिक भाषा विज्ञान के अंतर्गत भाषा में हुए इन्हीं परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।

देखा जाए तो ये परिवर्तन कई प्रकार के होते हैं, जिनसे भाषा का विस्तार अथवा मृत्यु कुछ भी हो सकता है। भाषा संरचना के विभिन्न स्तरों के अनुसार ये परिवर्तन भी विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे कि ध्वनि संबंधी परिवर्तन, अर्थ संबंधी परिवर्तन तथा संरचना संबंधी परिवर्तन आदि। इनमें से कुछ से भाषा के स्वरूप पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता है, कुछ से भाषा का कलेवर और भी समृद्ध होता है, तथा कुछ परिवर्तनों से भाषा अपने स्वरूप को खोकर विलुप्तप्राय होती जाती है।

इन्हीं में से एक अर्थ परिवर्तन की प्रक्रिया में भाषा में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ में परिवर्तन होता है जिसे परिवर्तन की दिशा के अनुसार तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है:
1. अर्थ-संकोच
2. अर्थ-विकास
3. अर्थादेश
जब किसी शब्द का प्रयोग पहले बड़े समूह को इंगित करने के लिए होता रहा हो और कालक्रम में वो समूह के सीमित सदस्यों के लिए ही प्रयोग होने लगे तो इस प्रक्रिया को अर्थ संकोच कहा जाता है। अर्थ-विकास इससे एकदम विपरीत अवस्था है, क्योंकि इसमें किसी शब्द का लक्ष्य और अधिक व्यापक हो जाता है तथा इसका प्रयोग एक बड़े समूह के लिए किया जाने लगता है। अर्थादेश में शब्द के प्रचलित अर्थ का लोप हो जाता है तथा इसका प्रयोग किसी दूसरे अर्थ के लिए होने लगता है।

अर्थादेश प्रक्रिया को शब्द के अर्थ के सकारात्मक अथवा नकारात्मक परिवर्तन के अनुसार दो भागों में बाँटा जा सकता है:
1. अर्थोत्कर्ष, एवं
2. अर्थापकर्श

अर्थोत्कर्ष में किसी शब्द का प्रयोग अच्छे अथवा सकारात्मक अर्थ में होने लगता है, वहीं अर्थापकर्श में सकारात्मक शब्दों का प्रयोग नकारात्मक अथवा वर्जित अर्थ में होने लगता है। उदाहरण के लिए: हालिया रुझानों में सामाजिक-राजनीतिक कारणवश भक्त शब्द का प्रयोग प्रेयोक्ति के रूप में होना शुरू हुआ है, तथा अर्थादेश की दिशा के अनुसार इसका अर्थापकर्श हुआ है।

 

भक्त प्रेयोक्ति एवं व्यंजित अर्थ

भक्त आध्यात्मिक डोमेन का एक प्रमुख शब्द है। इसका निर्माण ‘भज्’ धातु से हुआ है, जिसका तात्पर्य होता है ‘सेवा करना’ या ‘भजना’। विभिन्न आध्यात्मिक तथा दार्शनिक धाराओं में इसका तात्पर्य सार्वभौमिक रूप से स्वार्थरहित पूजन तथा सेवन के रूप में स्वीकार्य है। अधिकांश आध्यात्मिक धाराओं में भक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया गया है तथा इसकी महत्ता का आशय इसी बात से लगाया जा सकता है कि ज्ञानयोग के समान ही भक्तियोग को भी मोक्ष प्राप्ति का एक माध्यम माना गया है। मध्यकाल में इसके विस्तार के फलस्वरूप वर्तमान समय के अधिकांश पंथ भक्ति पर ज़ोर देते हैं। इसलिए भक्ति तथा भक्त भारतीय जनमानस से सूक्ष्मतम रूप तथा मज़बूती से जुड़ी बहुत ही महत्त्वपूर्ण अवधारणाएँ तथा उनको इंगित करने वाले शब्द हैं।

कुछ एक सालों में आए परिवर्तनों द्वारा भक्त शब्द का प्रयोग आज कल मीडिया द्वारा विभिन्न माध्यमों पर नकारात्मक अर्थ में धड़ल्ले से किया जा रहा है। इन संवादों में भक्त प्रेयोक्ति का व्यंजित अर्थ ऐसे मनुष्यों से है जो अंधे अनुकरण में लगे हुए हैं, तथा जिनका तर्क से कोई लेना-देना नहीं है। इनके अनुसार भक्त वो प्रजाति है जो लोगों द्वारा ध्यान न दिए जाने के कारण एकदम हताश हो चुकी है। इनके जीवन में कोई अर्थपूर्ण कार्य नहीं होता है इसलिए ये अन्य लोगों की निजी ज़िंदगी में दख़ल दिए रहते हैं।

एक सुप्रसिद्ध लेखक ने तो भक्त को एक विशिष्ट प्रजाति बताकर इस शब्द को अपने ढंग से व्याख्यायित करते हुए यहाँ तक कह डाला कि:

“वे प्रमुख रूप से पुरुष होते हैं। अंग्रेज़ी भाषा में संप्रेषण में इनकी एकदम पकड़ नहीं होती है, जिससे, परिवर्तित होते समाज में वे हीन भावना से ग्रस्त होते हैं। वे महिलाओं से अच्छे से बात नहीं कर पाते हैं इसलिए उनको पता नहीं होता कि उन्हें कैसे रिझाया जाए। उनमें महिलाओं को पाने की इच्छा तो होती है पर उन्हें महिलाएँ मिलती नहीं हैं और ऐसा होने की वजह से वो सेक्सुअली फ़्रस्ट्रेटेड होते हैं। उनमें हिंदू/भारतीय होने की बहुत अधिक शर्म होती है क्योंकि कहीं न कहीं वे जानते हैं कि हिंदी भाषी हिंदू भारत में सबसे ग़रीब हैं। वे ये भी जानते हैं कि भारत तीसरे दर्जे का देश है, जहाँ तीसरे दर्जे का बुनियादी ढाँचा है और विज्ञान, खेल, रक्षा तथा रचनात्मकता के क्षेत्र में वैश्विक मंच पर गिनाने लायक बस कुछ ही उपलब्धियाँ हैं।” (भगत, चेतन; २०१५)
देखा जाए तो इन अर्थों में इस शब्द का प्रयोग निकट भविष्य में भी प्राप्य नहीं था तथा २०१५ से कुछ राजनैतिक सूचनाओं से इसका प्रारम्भ एक विशिष्ट विचारधारा वाले लोगों को नकारात्मक ढंग से इंगित करने के लिए शुरू हुआ। एक सहज जिज्ञासा जाग्रत हो सकती है कि क्या पहले भी किसी समय भक्त का प्रयोग ऐसे अथवा किसी अन्य नकारात्मक अर्थ में हुआ है अथवा नहीं। क्योंकि अक्सर ऐसे परिवर्तन किसी न किसी प्राचीन गौण परिवर्तन/रुझान के प्रतिबिम्ब मात्र होते हैं। इसके लिए भक्त शब्द के ऐतिहासिक विवरण को विस्तार से देखने की आवश्यकता होगी।

 

भक्त शब्द का ऐतिहासिक विवरण
शब्दसागर, वाचस्पत्यम्, अमरकोश तथा कल्पद्रुम जैसे प्राचीनतम शब्दकोशों में प्राप्त विवरण के अनुसार भक्त शब्द के प्रयोग निम्नवत विभिन्न अर्थों में प्राप्त होते रहे हैं:
● सेवक, भक्तियुक्त, तादात्मय के लिए तत्पर, रत तथा पूजनकर्ता के अर्थ में
● सेवन/भोग करने के अर्थ में

इस सम्बंध में विस्तृत अंतर्दृष्टि के लिए भारतीय आर्यभाषाओं के कालक्रम के अनुसार भक्त शब्द के अर्थ सम्बंधी लक्षणों का अध्ययन तुलनात्मक रूप से तीन भागों में निम्नवत किया जा सकता है:

१. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा
प्राचीन भारतीय भाषाओं की समयावधि १५००-८०० ईसा पूर्व की है। संस्कृत भाषा में हुए परिवर्तनों के हिसाब से इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

● वैदिक संस्कृत:
इसका काल १५००-५०० ईसा पूर्व का है, तथा इस समय वैदिक संस्कृत भाषा प्रचलन में थी। भक्त शब्द का प्रयोग इस समय से ही मिलना शुरू हो जाता है। हिंदू संस्कृति के सर्वप्रथम प्राप्य ग्रंथ ऋग्वेद में इसका उल्लेख विभिन्न स्थानों पर मिलता है।

सामवेद तथा अथर्ववेद में भी भक्त शब्द का प्रयोग सेवन तथा भक्षण के अर्थों में विभिन्न स्थानों पर प्रयोग हुआ है। इन दोनों प्रकार के अर्थों में भी इसका तात्पर्य सकारात्मक है तथा इसके बाइनरी लक्षणों में नकारात्मकता अथवा अपकर्श का लेशमात्र भी अंश विद्यमान नहीं है।

● लौकिक संस्कृत:

इसकी समयावधि ८०० ई. पू. से ५०० ई. पू. तक मानी जाती है। पुराणों, रामायण तथा महभारत आदि की भाषा लौकिक संस्कृत ही है। लौकिक संस्कृत में तो भक्त शब्द का प्रयोग बहुतायत से मिलता है। एक उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत है:

२. मध्य भारतीय आर्य भाषा
इसका समय ५०० ई. पू. से लेकर १००० ई. तक माना जाता है। इसमें पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश आदि भाषाएँ आती हैं। इस काल की भाषाओं में भी देखें तो जैन धर्मियों के अति महत्त्वपूर्ण तिजयपहुत्त स्तोत्र (त्तिज्यपुट्ठ स्तोत्र के नाम से भी जाना जाता है) में भक्त का सामान्य अर्थ में प्रयोग प्राप्त होता है:

अपभ्रंश कवि रइधू की रचनाओं में यत्र-तत्र भत्त एवं भत्ति शब्द का प्रयोग मिल जाता है। इनका समय काल १४वीं से १५वीं शताब्दी के बीच का है। दसलक्षण धर्म से एक उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत है:

अपभ्रंश-हिंदी शब्दकोश में भी भत्ति का तात्पर्य सेवा, विनय एवं आदर से तथा भत्त शब्द का तात्पर्य भक्ति युक्त व्यक्ति से स्वीकार किया गया है। प्राकृत पैंगलम से एक उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत है:

३. आधुनिक भारतीय आर्य भाषा
इसका समय १००० ई. से अब तक माना जाता है। इसमें हिंदी तथा हिन्दीतर विभिन्न भाषाएँ आती हैं। इसमें काल को प्राचीन हिंदी (११०० ई.-१४०० ई.), मध्यकालीन हिंदी (१४०० ई.-१८५० ई.) तथा आधुनिक हिंदी (१८५० ई.-अब तक) में विभाजित किया जा सकता है।

प्राचीन हिंदी का भक्त विषयक एक उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत है:

मध्यकाल के कुछ उदाहरण निम्नवत प्रस्तुत हैं:

ज्ञान भक्ति धारा के अतिरिक्त सगुण भक्ति धारा के रचनाकारों की रचनाओं में भी भक्त शब्द इसी अर्थ में यत्र-तत्र प्रयुक्त दिखाई पड़ता है:

भक्तिकाल के बाद रीतिकाल आते-आते भाषा की दिशा तथा दशा में पर्याप्त परिवर्तन हो गया था तथापि इस समय की रचनाओं में भी भक्त शब्द का प्रयोग सहज रूप से दृष्टिगोचर होता है:

इसी समयांतराल का एक अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य है:

इन सभी उदाहरणों में भक्त शब्द का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ में सेवन, पूजन तथा समर्पण के अर्थ में हुआ है। वहीं आधुनिक युग के रचनाकार भी इस संदर्भ में अपवाद नहीं हैं। भक्त शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में सर्वत्र प्राप्त होता है। यहाँ तक कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तो अपनी दो रचनाओं, भक्तसर्वस्व और भक्तमाल के नाम में ही भक्त शब्द का समावेश कर दिया। अन्य आधुनिक गद्य तथा कविताकारों के द्वारा सर्वत्र भक्त शब्द का प्रयोग उपरोक्त सकारात्मक अर्थों में ही प्राप्त होता है।

इस ऐतिहासिक अध्ययन से यह तो सुस्पष्ट हो जाता है कि भक्त अथवा भक्ति शब्द का प्रयोग निरंतर सकारात्मक अर्थ में ही होता आ रहा है। अपने प्रारम्भिक समय से इनका कोई भी नकारात्मक प्रयोग उपलब्ध नहीं है। कुछ-कुछ समयांतराल पर काल बदलते रहे, लोग बदलते रहे, प्रचलन बदलते रहे, पर इससे इंगित अवधारणा यथावत रही। अतः इस प्रकार से एकदम पृथक अर्थ में इस शब्द का प्रयोग स्पष्ट रूप से एक नया प्रचलन है, जिसे बलात भाषा में स्थान दिया गया है। वहीं इसमें अन्य परिवर्तनों की तरह मूल में जन-सामान्य की इच्छा न होकर सामाजिक-राजनैतिक कारण विद्यमान है।

 

अर्थादेश की व्यापकता एवं गति
भक्त शब्द के अर्थादेश की व्यापकता एवं गति भी चमत्कारिक रूप से अभूतपूर्व है। देखा जाए किसी भी प्रकार के भाषा परिवर्तन के सारे भाषा समूह में होने में दो चीज़ों का अहम स्थान होता है:
● समय
● स्थान

बहुमान्य अवधारणा के अनुसार भाषा का प्रसार तात्कालिक न होकर एक निश्चित समयांतराल के बाद होता है। वहीं इसकी गति एक केंद्रीय स्थान से होकर, जल में तरंगवत विभिन्न बाह्य क्षेत्रों की तरफ़ होती है। ऐसे में कई बार किसी स्थानविशेष पर आकर परिवर्तन का यह क्रम टूट भी सकता है, अथवा अतिरिक्त गति प्राप्त करके अन्य हिस्सों की तुलना में त्वरित परिवर्तन भी हो सकता है। वस्तुतः आम जीवन में सूचना प्रौद्योगिकी के दख़ल होने के बाद से भाषा परिवर्तन को व्याख्यायित करने के लिए योहानेस श्मिट (Johannes Schmidt) तथा यूगो शुकर्ट (Hugo Schuchardt) द्वारा प्रदत्त तरंग मॉडल की प्रासंगिकता अब उतनी अधिक नहीं रह गयी है। भक्त शब्द का अर्थादेश इस संदर्भ में प्रमाण है तथा थोड़े प्रयास से ऐसे अन्य कई प्रमाण सहज ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

ऐसे में भक्त शब्द के व्यष्टि अध्ययन के अनुसार देखें तो वर्तमान समय में सोशल मीडिया तथा मास मीडिया मंचों का सामान्य जीवन में बहुत अधिक दख़ल होने के कारण भाषिक परिवर्तनों का प्रभाव बहुत ही अल्पावधि में दृष्टिगोचर हो रहा है। यूँ तो सामान्य भाषा परिवर्तनों के हिसाब से तीन साल का समय बहुत ही छोटी अवधि है, पर इतने समय में ही इस शब्द का अर्थापकर्ष व्यापक रूप से हो चुका है तथा जनसामान्य द्वारा एक विशिष्ट डोमेन में यह सहज रूप से ग्राह्य है। चूँकि तकनीकी प्रसार के कारण सोशल मीडिया मंचों का प्रभाव स्थान विशेष तक सीमित न होकर अन्तर्जाल से जुड़े समस्त भाषा भाषियों में व्यापक रूप से होता है, ऐसे में ये परिवर्तन किसी एक समूह (केंद्रीय स्थान) में होकर फिर वहाँ से अन्यत्र फैलने के बजाय पूरी भाषा में एक साथ ही हो जाते हैं।

 

प्रेयोक्ति चयन तथा नैतिक ज़िम्मेदारी
ऐसे उदाहरणों के सामने आने से इस बहस को भी एक आधार मिलता है कि क्या भाषिक प्रेयोक्तियों के चयन एवं प्रयोग में भी भाषा-भाषियों की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है? उदारतावादी दृष्टिकोण से देखा जाए तो जनसामान्य से ऐसी अपेक्षा भाषा के प्रवाह को बाँधने का एक प्यूरिटन (शुद्धतावादी) प्रयास मात्र होगा; परंतु जिस प्रकार वृक्षों के समग्र विकास के लिए समय-समय पर निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार छोटे-छोटे अंकुशों द्वारा भाषा विकास की दशा एवं दिशा निर्धारित करना उसे बाँधना नहीं अपितु दीर्घकालिक विकास के लिए देश तथा काल के अनुसार लिया गया एक सकारात्मक निर्णायक क़दम ही कहलाएगा।

सामन्यतया ऐसी प्रेयोक्तियों के केंद्र बिंदु तक जाने पर पता चलता है कि ये सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्यों से अभिप्रेरित होती हैं, तथा वर्ग विशेष को लक्ष्य करके प्रयोग की जाती हैं। अधिकांश सामान्य भाषा-भाषी ऐसे उद्देश्यों से अनजान होते हैं अथवा ताल्लुक़ नहीं रखते हैं। ऐसे में जनसामान्य से तो नहीं परंतु प्रभावपूर्ण तथा सत्तासम्पन्न भाषाभाषियों से इतना अवश्य अपेक्षित है ऐसी प्रेयोक्तियों के प्रयोग में हिदायत बरती जाए जो संजातीय, धार्मिक तथा आध्यात्मिक अवधारणाओं पर गढ़ी हुई हों।

इसके साथ ही प्रेयोक्ति के आधार रूप में उन अवधारणाओं से जुड़े शब्दों का चयन श्रेयस्कर होगा जिन्हें बहुत ही हल्के में/सामान्यतया लिया जाता है; ऐसे में न केवल भाषाई उपकरण का प्रयोग हो सकेगा बल्कि भाषा परिवर्तन की दिशा श्रेयस्कर होगी तथा भाषाभाषियों के अवचेतन पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होगा।

 

शोध निष्कर्ष
भक्त शब्द के व्यष्टि अध्ययन से कई अभूतपूर्व निष्कर्ष सामने आ रहे हैं। सामान्यतः अर्थादेश में किसी शब्द का गौण अर्थ विकसित होता है। यह गौण रूप कालांतर में मुख्य अर्थ को प्रतिस्थापित कर देता है। पर इस प्रकार के भाषा परिवर्तन तथा विशेष रूप से अर्थ परिवर्तन में एक ख़ास पैटर्न प्राप्त हो रहा है। यहाँ अर्थ परिवर्तन सम्पूर्ण भाषा में न होकर एक ख़ास डोमेन में ही हो रहा है, तथा उस डोमेन में भी यह गौण न होकर सीधे एकमात्र प्रधान अर्थ के रूप में प्रयुक्त हो रहा है। वहीं इतर डोमेन में इसका अर्थ अक्षुण्ण है।

इसके साथ ही भावी शोध के लिए कई जिज्ञासाएँ भी प्राप्त हो रही हैं कि क्या परिवर्तित अर्थ वाले डोमेन का प्रभाव समग्र रूप से पूरी भाषा पर पड़ेगा अथवा नहीं; और यदि ऐसा होता है तो क्या इसका नकारात्मक प्रभाव संजातीय, धार्मिक तथा आध्यात्मिक अवधारणाओं से सम्बद्ध मनोवृत्ति/अवचेतन पर होगा या नहीं। वैसे भी इन सम्भावनाओं को ध्यान में रखते हुए तो किसी भी स्थिति में इस प्रकार की प्रेयोक्तियों के प्रयोग को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

 

संदर्भ ग्रंथ

  • कबीरदास विरचित बीजक
  • केशव विरचित रामचंद्रिका
  • त्तिज्यपुट्ठ स्तोत्र
  • तुलसीदास विरचित रामचरितमानस
  • प्राकृत पैंगलम
  • द्विज विरचित शृंगारलतिकासौरभ
  • यजुर्वेद
  • रइधू विरचित दसलक्षण धर्म
  • ऋग्वेद
  • व्यास विरचित भगवद्गीता
  • विद्यापति विरचित विद्यापति पदवाली
  • Bhagat, Chetan. Anatomy of an internet troll: How social media birthed a strange new phenomenon in India, the bhakts. 11 July 2015. 1 July 2017 <https://blogs.timesofindia.indiatimes.com/The-underage-optimist/anatomy-of-an-internet-troll-how-social-media-birthed-a-strange-new-phenomenon-in-india-the-bhakts/>.
  • Schmidt, Johannes. Die verwantschaftsverhältnisse der indogermanischen sprachen. 1872

 

(द्विवेदी,सत्यम. “भक्त: ऐतिहासिक भाषावैज्ञानिक अध्ययन.” दि वॉइस, III, सं. १, मार्च २०१६, पृ. ७९-८८)

छायाचित्र सौजन्य: Shivam Dwivedi

1Comment
  • Dr. Pankaj kumar
    Posted at 23:30h, 10 July Reply

    अद्भुत

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